Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 178
________________ 1 १६३ agar Ka प्रत्यूष-संध्याकाल सम सुख-दुख हुआ करते यहां, अप्राकृतिक सुख दुःखमें हर्षित मुदित होना कहां । सप्रेम उत्साहित सदा गृह कार्यमें तुम रत रहो, चिन्ता - चिता में व्यर्थ ही कोमल न इस तनको दहो । ७३ शोभा नहीं कुछ भी तुम्हारी व्यर्थके शृङ्गारमें, कोई नहीं अब तो रिझानेके लिये संसारमें । दुर्वासनाका दास हो रहना किसीको इष्ट कब, यस ! चाहिये सहना सदा वैधव्यका अति कष्ट अब । ७४ शुद्धाचरणमें ही तुम्हारा भगनियो ! कल्याण है, सचमुच अनाथोंका यहां पर नाथ वह भगवान् है । निर्भीक हो तुम तो हृदयसे लोक सेवा आदरो, उन्मार्ग में तुम भूल करके भी कभी मत पग धरो । ७५ उन्मार्ग में चलकर किसीको क्या जगतमें सुख मिला, गों अग्रिक संसर्गसे पोलो न किसका तन जला । मन्मार्गमें चलकर मनुज पाता सदा ही शान्ति है, सब शक्तियों के साथ ही यढ़ती हृदयकी कान्ति है। '

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