Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 176
________________ अवयह न समझो चित्तमें सन्मुख नहीं आदर्श है, . उन वीर पुरुषोंसे कभी खाली न भारतवर्ष है। उन पूर्वजोंसा वीर मिलना तो सदा दुसाध्य है, सुन्दर प्रसूना भावमें अब गंध ही आराध्य है। जो जिस विषयमें नर यहांपर सर्वदा असमान्य है, इस लोकको वह उस विषय में सर्वदाही मान्य है। संमृति-जनों में सर्वदा गुण दोष दोनों हों सही, गुण विज्ञजन करते ग्रहण लवलेश दोषोंको नहीं। श्रीशान्तिसागरसे विपुल अब भी तपखी है यहां, श्रीमान् चम्पतरायसे उत्तम मनस्वी हैं यहां । पंडित गणेशीलाल न्यायाचार्य सेवक आज हैं, साहित्य-रत्न सदृश अहो निर्भीक लेखक आज हैं। श्रीदेवकीनन्दन सदृश विद्वान टीकाकार हैं, प्राचीन ग्रन्थोंका सहज ही कर रहे उद्धार हैं। विद्वान् हैं सिद्धान्तके श्रीमान माणिकचन्दसे, है दानके दाता यहां पर सेठ हुकमीचन्दसे।

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