Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 174
________________ Msa अभ्यास तुमको सद्गुणोंका शीघ्र करना चाहिये, सहपाठियोंका यनले सन्ताप हरना चाहिये। जिस ओर अपने चित्तको इस काल तुम ले जाओगे, घस इस अवस्थासे सफलता शीघ्र आगे पाओगे। जातिच्युत। होके हमारे बन्धु ही हमसे अलग तुम हो गये, होते नहीं हैं भाव क्या हममें न मिलनेके नये। अब आरहे हैं स्वच्छ दिन हममें पुनः मिलजाओगे, निर्भीक धार्मिक कृत्य शुभ सर्वन करने पोओगे। सद्धर्मपर अधिकार तो सबका सदैव समान है, जो विघ्न करते धर्ममें उनका बड़ा अज्ञान है। क्या पापियोंने धर्मको संसारमें पाला नहीं, उनका हृदय यो सर्वदा ही तो रहा कालानहीं। मुखिया । मुखियो। हमारी जातिके सोचो विचारो आपअब, निज बन्धुओं प्रतिभूल करके मत करोयो पाप अथ। यो स्वार्थ साधनके लिये उनकोन अब तुमन्त्रास दो, जिससे तुम्हारी जातिका प्रतिदिन अधिकतर हासहो

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