Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

View full book text
Previous | Next

Page 175
________________ देखो ! तुम्हारे दण्डसे होता न कोई शुद्ध है. अन्यायसे होके दुखी होता सदा वह कुद्ध है। कहते किसे स्थितिकरण यह आज सर्वभुला दिया, वात्सल्यताका तो अनादर ही यहां जाता किया। है आज उपगृहन कहाँ निन्दा छिपानेके लिये, सब ही हुए हैं दक्ष हा ! दुर्गुण बतानेके लिये। नारद बने हैं ! आज मुखिया ही लड़ानेके लिये, विद्वष और अनीतिकी पुस्तक पढ़ानेके लिये। अब तो खड़े हो वेगसे सारी कुरीतोंको हनो, न्यायी सदाचारी तथा निष्कामपर सेवी बनो। रक्खो सजग जगमें सदा मुखियापनेकी लाजको, तुम जान करके मत गिराओ जाति और समाजको। सबही सुधरते जा रहे यदि आप सुधरोगे नहीं, थोड़े दिवसमें देख लेना नाम भी होंगे नहीं। इस विश्वके अनुसारही तुमको पलटना चाहिये, निमल आग्रहपर कभी तुमको न डटना चाहिये।

Loading...

Page Navigation
1 ... 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188