Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 183
________________ १६८ श्रीसंभवनाथ । सुख प्राप्ति आशासे प्रभो ! मैं तो यहां फिरतारहा, बस ! ठोकरें खा पापकी दुख कूपमें गिरता रहा। करके कृपा अव लीजिये यह हाथ अपने हाथमें, यों छोड़कर तुमको कहो किसको बनाऊ नाथ मैं। __ श्रीअभिनन्दन । हे नाथ ! अभिनन्दन यही है कामना मेरी सदा, तुममें रहे अविचल अटल सद्भक्ति मेरी सर्वदा। जिसके हृदयमें आप होउनको न दुख होता कहीं, आदित्यके सन्मुख अंधेरा ठहर सकता ही नहीं। र सुमतिनाथ । जीता प्रभो तुमने सहज मदमोह काम क्रोधको, देते रहे संतप्त जनको आप ही सद्बोधको । हेसुमतिनाथ! जिनेन्द्र अव सबुद्धिदो!सद्धिदो! कर्तव्यनिष्ठा बल सुसाहसमें हमें तुम वृद्धिदो। श्रीपद्मप्रभु। हे आर्य : पद्मप्रभ ! जगतमें आप सर्वोत्तम सदा. लक्ष्मी अहो रहती तुम्हारे पाद-पंकजम सदा । मैं वन्दना करता तुम्हारी सर्वदा त्रययोगसे, अब मुक्तकर दीजे हमें हे नाथ ! ऐहिक रोगसे ।

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