Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

View full book text
Previous | Next

Page 185
________________ २०४ ११५ जिस भांति पहले राज्य में विध्वंस रिपुओंका किया, अब कर्म रिपुओंका हृदयसे नाश वैसे ही किया । करते हुये भी कृत्य यह उनमें न राग द्वेष था, ममता न थी, चिन्ता न थी, नहिं कोप भी तो लेश था। श्रीचरनाथ । अरनाथ ! आप सदैव ही इस विश्वके नेता रहे, निज शक्तिसे ही लोकके मिथ्यात्वके जेता रहे । बस! आपका ही सर्वथा निज पर प्रकाशक ज्ञान था, तप राशि तेज निधान महिमाधान तू भगवान् हैं । ११७ नहिं खेद कुछ मनमें हुआ खर्गीय सुखको छोड़ते, सहजा ललित ललनाङ्गनाओ से बदनको मोड़ते । भवभोगको सुख मानता, समझे न वस्तु स्वरूपको, विष मानता नर भोगको जब जानता निज रूपको। श्रीमल्लिनाथ । हे मल्लिनाथ ! जिनेन्द्र जो करता तुम्हारी बन्दना, करना न पड़ता फिर उसे ऐहिक दुखों का सामना | प्रभु आपकी दिव्य ध्वनि पड़ जाय कानो में कहीं, मद, मोह, मत्सर चित्तमें पलमात्र रह सकते नहीं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 183 184 185 186 187 188