Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 177
________________ १६२ ટ जिनकी कलमसे गूढ नेकों ग्रन्थ अनुवादित हुए, तत्त्वार्थ वार्तिक और गोम्मटसार संपादित हुए । उन न्यायतीर्थ विशेष ज्ञानी श्रीगजाघरलालका, उपकार शुभ क्योंकर भुलाया जाय उन्नत भालका । विधवा सम्वोधन । बहिनो ! तुम्हें निज चित्तमें व्याकुल न होना चाहिये. प्राणेश स्मृति कर नई दुखसे न रोना चाहिये । परिणाम यह तुमको मिला है पूर्वके दुष्कर्मका, अब तो जरा पालन करो निश्चिन्त हो निज धर्मका । ७० है धर्म ही सबका सहायक सर्वदा दुख शोकमें, इन प्राणियोंके साथ भी जाता यही परलोकमें । जितने जगतमें जीव हैं यह धर्म उनका मित्र है, होता इससे जीव पापी भी सदैव पवित्र है । बहानेसे अधिक नी नहीं सनी था. करना सर्वा ही था। 왕 अद्भुत तुम्हारी श्रीनाका यह परीक्षा काल है, विकी कृपासे हो तुम्हारा रिक्त सहसा भाल है ।

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