Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 172
________________ १८७ ४८ निजातिके विश्वासपर ही अध विजय पाना तुम्हें, मन्मार्ग सपसे प्रथम निशङ्क भी जाना तुम्हें । उपकार करनेके लिये ही जन्म जगतीमें हुआ, निज पेटभर करके कहो नहि कौन इस भूमें मुआ ? ४६ तुम किनके भय दिखानेसे न डरना चाहिये, वसोत्साह जगमें नित्य करना चाहिये । घोजी तुम्हारे मार्ग में रोड़ा तनिक अटकायेंगे, मे आप ही उन पत्थरोंमें दैववश गिर जायेंगे । ५० हुआ संध्या समय आवे कहीं, ना भूला कहाना है कहीं । मोपे नहीं कहलायेंगे, पा हुआ मय पायेंगे। 1

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