Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 171
________________ १८६ सत्य । यह सत्य ही जगमें रहेगा नित्य जीता जागता, मिथ्यात्वका काला बदन निजसत्य सन्मुख भागता । शुभ सत्यके ही जोरपर तो टिक रही है यह मही, उसकी विपुल महिमान हमसे आज जाती है कही । ४५ लोकोक्ति कितनी रम्य है नित सांचको भी आंच क्या, मणिमोल बिक सकता जगतमें एकदिन भी कांचक्या ? अवलोकते हैं नेत्र सन्मुख दृश्य प्रतिदिन सत्यके, फिर क्यों न परिवर्तित करोगे भाव अपने चित्तके । ४६ नित सत्यकी ही जीत होती पूर्वजोंका वाक्य है, सबसे प्रथम सब मानवोंको सत्यही आराध्य है । जिसके हृदय में सत्य है सुमहत्व भी रहता नहीं, हां, काटकी हांड़ी न दूजी बार चढ़ती है कहीं । नवयुवको । मुरदार जीवनमें तनिक अब शक्तिको संचारदो, मद. मोह मत्सरको हृदयसे शीघ्र अवसंहार दो । दिखलाइये ढीली नसोंनें भी अभी कुछ रक्त है, सच्चा, हृदय उन वीर प्रभुकी वीरताका भक्त है ।

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