Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 155
________________ १७० - तेरइ ( मृतक भोज ) हा, एक ओर विलोकिये परिवारके जन से रहे, खाके वहीं मोदक मुदित हा! हाथ कोई धो रहे । इससे मृतक या गेह मालिकको मिली क्या सान्त्वना, केवल दुराशा मात्र है इससे प्रणयकी कल्पना | ३४७ ऐसे जिमानेसे कभी होता प्रगट क्या नेह है, हां, मित्रता भी अहो, पड़ता प्रबल सन्देह है । किस शास्त्रमें इसकी कथा यह कौनसा सत्कर्म है, भारी हमारी भूलसे अनरीति आज सुधर्म है । अन्तिम दान | जब द्रव्यको वे बांधकर ले जा न सकते साथमें, अन्तिम समय कुछ दान दे तब पुण्य लेते हाथमें । रहते हुये जीवन कभी देना न जाना दानको, वे नित्य अपनाते रहे अभिमानको अज्ञानको । देखा देखी । अब अनुकरण प्रिय हो रहे हैं हम अधिकतरही यहां, बस दुर्गुणों को सीखते सीखें न सुगुणों को यहाँ । भरपूर करते खर्च हम पाई बचायेंगे नहीं, प्रत्येक उत्सव मुदित गणिका नचायेंगे सही ।

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