Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 164
________________ १७६ परतंत्र होकर स्वप्नमें चाहो न सिंहासन कभी, स्वाधीन सुखमय है जगतमें दीन जीवनसी सभी। स्वाधीनताके हेत हम चिरकाल वन वनमें फिरें, रहते हुए निज प्राण नहिं परतंत्रता स्वीकृत करें। जिसका सदा परके सहारे पेट जाता है भरा, जीता हुआ भी लोकमें वह नर कहाता है मरा। स्वाधीनता बिन आजकल हम तो कहाते श्वानसे, हा ! हाथ धो बैठे कभीके उच्चतर सन्मानसे । भविष्य । आशा सदा करते युवक संसारमें शु भविष्यकी, बातें किया करते पुराने लोग बीते दृश्यकी । अवलोकके भीषण दशा कर्तव्य पालेंगे नहीं, तो है अवश्य पतन निकट मनकोसभालेंगे नहीं। स्त्रीशिक्षा। जबतक न महिला-जाति अनुपम सद्गुणों सम्पन्नहो, कैसे वहां बलवान भी सन्नान तब उत्पन्न हो । सबसे प्रथम उनको यहां विदुषी बनाना चाहिये, निज अङ्गके अनुरूप ही उनको बनाना चाहिये।

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