Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 167
________________ १८२ २८ सन्तान पैदाका न उनको यंत्र जग जाना करे, अन्याय अत्याचार कोई भी नहीं ठाना करे । फिर सोच लीजे आपही परिणाम जैसा आयगा, संसारका त्रयताप सब क्षणमात्रमें मिट जायगा । स्थिति पालक । पीते रहोगे आप कबतक हाय खारे नीरको, पीटा करोगे आप कबतक निन्यवक लकीरको । हा ! धर्मके ही नाम पर कैसे कराते पाप हो, सत्कर्म में भी अघ दिखाकर क्यों डराते आपहो । ३० लड़ने लड़ानेसे किसीको भी मिला आराम क्या ? यों ईंट गारेके बिना जगमें बना है धाम क्या ? पारिस्परिक के द्वेषसे मिलता किसीको सुख नहीं, द्वेषानिसे ही कौरवोंका अन्तका जगमें नहीं ? ३१ कर लो हृदय कोमल कि जिससे दूर सारी भ्रांति हो, ऐसा करो सत्कार्य जिससे लोक भरमें शांति हो । आचार्य कृत शुभग्रन्थ पढ़कर काममें लाते नहीं, उनकी किसीको गूढ़ बातें आप बतलाते नहीं ।

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