Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

View full book text
Previous | Next

Page 165
________________ १८० २० इस विश्व नभखगके सदा स्त्री-पुरुष दो पंख हैं, अपने सुरक्षित पंखसे उड़ते विहग निशङ्क हैं । गार्हस्थ- गाड़ी के अहो ! स्त्री पुरुष हैं दो चके, बस ! समचकोंसे ही सदा निर्विघ्न गाड़ी चल सके। २१ जैसे सतत उनके हृदयपर आपका अधिकार है, ठीक उसी भांति उनका आप पर अधिकार है। समो कभी मत नारियोंको निज भवनकीस्वामिनी, किन्तु उनको मानिये बस निज हृदय अधिकारिणी । २२ गृहिणी गृहम् हि उच्यते न तु काष्ठसंग्रहको कहीं, शिक्षित प्रिया बिन लेश भी सन्तानकी उन्नति नहीं, शिक्षित बनाना नारिको अत्यन्त आवश्यक सदा, हा ! मूर्ख नारीसे सदनमें क्लेश बढ़ता सर्वदा । २३ शिक्षित यहां पर एक दिन सम्पूर्ण नारि समाज था, जगधीच श्रेष्ठ समाज यह हम मानवोंका ताज था । था अर्द्ध सिंहासन सदा पतिदेवका उनके लिये, ही उन देवियोंसे थे अधिक जाते किये।

Loading...

Page Navigation
1 ... 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188