Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 157
________________ १७२ ३५८ सबकी चली थी लेखनी नित शास्त्र के अनुकूल ही, पर आधुनिक लिख्खाड़ लिखते शास्त्र के प्रतिकूल ही कहते भला क्या नष्ट कर दे चित्तकी स्वाधीनता, हंसता सकल संसार अब अवलोक ज्ञान विहीनता । नशेबाजी । यो देखिये सर्वत्र घीड़ी आजकल आहारमें बाजार में, दूकान में दही घरोंमें भी कहीं बैठे निकालेंगे धुआं, तन सर्व रोग निवारिणी संचार बीड़ीका हुआ । ३५६ उन साहवों को देख करके चाय हम पीने लगे, आहारको तजकर अहो ! ऊपर अधिक जीने लगे । होता न कोई काम अब तो हाय ! लिप्टनही पिये. उनके सहारे आज हमसे काम जाते हैं किये । साहित्यकी अवनति । हम उच्च ग्रन्थों का कभी अध्ययन करते नहीं, सिद्धान्त अपने दूसरों के सामने धरते नहीं । अब तो हमारा ज्ञान साग ही परीक्षामें रहा. देखो परीक्षा याद वह फिर ग्रन्थ भाता है कहाँ ? संसार में, आगार में ।

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