Book Title: Jain Bharati
Author(s): Gunbhadra Jain
Publisher: Jinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta

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Page 159
________________ एकता भूधरतान। होते हुये इतना सभी हममें अभी कुछ श्वास है. हम कर सकेंगे सर्व-उन्नति यह अटल विश्वास है। सबसे प्रथम हमको जगतमें एक होना चाहिये, अपने परायेका हृदयसे भाव खोना चाहिये। अति निष्कपट सच्चा सदा रहता जहांपर प्रेम है, सब सिद्धियों के साथ ही रहती वहाँपर क्षेम है । अतएव प्रणयी बन्धुओ। तुमप्रेमका प्याला पियो, आनन्दमें हो मग्ननित चिरकाल तक सुखसे जियो। संचित हुये तृण तुच्छ ही यों बांधते गजराजको. दृढ़ एकता करती अलंकृत विश्व बीच समाजको । यों डेढ़ चावलको पृथक् खिचड़ी सदापकती जहां, उन्नति विचारी घोलिये किस भांति रह सकतीवहां जीवन सगरमें प्रेमही जयको तुम्हें दिलवायगा, आता हुआ संकटविकट डरकर स्वयं टलजायगा। पशु-पक्षि भी होते विमोहित प्रेमके सम्बन्धसे, होता नहीं क्यामुग्ध मधुलिह१ भी सुमनकी गंधसे? - भ्रमर।

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