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इस लोक निन्दाकी उन्हें मनमें न कुछ परवाह है,
माता पिता निज बन्धुओंकी भी न उनको चाह है। वे मस्त रहते हैं प्रबल अपने निराले रंगमें, रहना नहीं वे चाहते पलभर कभी सत्संगमें।
११६ निज पेट भी वे भर सकें इतना न उनमें ज्ञान है,
उनके वचनमें देख लो कितना भरा अभिमान है। है द्रव्य अपने पासमें लो चापलूसी यार हैं, वे मित्रको ही लूटनेको तो सदा तैयार हैं।
हमारी शिक्षा। उस पूर्व शिक्षाका जगतसे नाम जबसे उठ गया,
तबसे हमारा धार्मिक श्रद्धान सारा हट गया। विद्यासदन निःशुल्क भी प्रतिदिन यहांपर बढ़ रहे, रहकर जहांपर छात्रगण सोत्साह विद्या,पढ़ रहे।
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अइउणऋलुकरटकर किसी विधि पासकर ली कौमुदी तुम तिर चुके सम्पूर्ण मानों संस्कृत विद्या नदी। दश साल श्रम करके कठिन हम न्यायतीर्थ हुये कहीं, चालीसकी भी नौकरी ढूंढे अहो! मिलती नहीं।