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रिपुकी विपुलअज्ञानता लख चित्तमें कुछ क्लेश था। करके कृपा हे ईश, अब सवुद्धि रिपुको दीजिये, मोहमद मात्सर्य सवका दूर भगवन् कीजिये।
हमारा पतन। इस भांति अतिशय ही समुन्नतथे यहाँ प्रारम्भमें, फंसने लगे फिर वेगसे हम लोग ईर्ष्या दम्भमें । जाने लगा सब ज्ञान हा ! आने लगी अज्ञानता,
गृह युद्ध भी ऐसा मचा जिसका नहीं अवलों पता। पावन हृदयमें स्वार्थने हा! गेह अपना कर लिया,
क्षण मात्रमें उसने हमारे सद्गुणोंको हरलिया। निज बन्धुओंसे ही अहो! तब तो घृणा करने लगे,
सत्कर्म करते भी सकल हम लोकसे डरने लगे। हम एक हो करके यहांपर तीन तेरह हो गये,
क्षमशीलता, उपकार, करुणा भाव सारे सो गये। इतनी बढ़ाई भिन्नता निज गेह भी न्यारा किया,
हमने न अपने यन्धुको दुखमें सहारा भी दिया। हा! उत्तरोत्तर भिन्नता प्रतिदिन यहां बढ़ती गई,
इस भव्य भारतवर्ष पर संकट लता चढ़ती गई। हावट गये हम तोसहज ही फिर अनेक विभागमें,
क्यों देवने यों लिख दिये दुर्दिन हमारे भागमें ?