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जिस संघमें थोड़े मनुज थे, नष्ट सहसा हो गया,
लाचार' होके अन्तमें या दूसरों में मिल गया। इस विश्व विश्रुत वर्णको तब तो कहीं माना नहीं,
उससे कभी निज धर्मका कल्याण भी जाना नहीं। हो संघकी अति वृद्धि नित उत्कट यह इच्छा रही.
अतएव अपनी वालिका परको न देते थे कहीं। विख्यात होनेके लिये इल जातिकी रचना हुई, पर आज वह बहु अड़चनोंसे हाय ! जाती है मुई।
धर्म गुरुओंका अन्याय। - सग्रन्थ गुरुओंका यहाँ अन्याय नित्य अनल्प था,
पर उस समय श्रद्धान भी हमको न उनमें अल्प था उनके बचनको भक्त गण सर्वज्ञ वाणी मानते,
हा अन्ध श्रद्धामें मनुज अपना न हित पहिचानते। करते रहे ये तंग जगको पग पुजानेके लिये,
धनते रहे ये गुरु यहां नृपसम कहानेके लिये। जो बात हां होगी नहीं भूपालके दरवारमें, वह वात थी इन भ्रष्ट गुरुओंके विपुल दरवारमें।
तेरह पन्थ और वीस पन्थ। तब तो यहाँ रचना हुई सप्रेम तेरह पंथकी,