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अकलंक युतनिकलंकने व्रत वाल्यजीवनमें लिया, रहते हुये निज प्राण उसका अंततक पालन किया। करने लगे उनके पिता तैयारियां उत्साहसे,
बोले तभी वे वीर हमको काम क्या इस व्याहसे? देखो ! पिता सर्वत्रही अज्ञान तम अति छा रहा, प्राचीन अपना धर्म दिन २ हा । रसातल जारहा । जीवन बिताऊंगा पिता निज धर्मके उद्धार में,
उन्नति न करते धर्मकी वे भार हैं संसारमें । अतएव अपने पुत्र ये धर्मार्थ अब अर्पण करो, होगा हमारा क्या अकेले यह न तुम चिंता करो। नकलंक तो हंसते हुये बलिदान सहसा होगये, अकलंक अपने ज्ञानसे अज्ञान तमको घो गये । पाठक ! यहां बलिदानकी कैसी भयंकर थी प्रथा,
सब जान लीजे आप उसको पर पुराणोंसे तथा । श्रीवीर प्रभु होते न जो हिंसा कभी रुकती नहीं, अपने हिताहितको कभी भी यह मही लखती नहीं । आदेश पालक वीर थे संसार में मगधेश १ से,
पाके पिता आज्ञा कठिन सविनय गये जो देशसे श्रीराम लक्ष्मणसा किसीमें प्रेम क्या होगा हरे ?
१ श्रेणिक
२