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थे राज- मन्दिर कष्टप्रद कानन सुहाता था उन्हें, यो पूर्वका अनुमुक्त सुख नहि याद आता था उन्हें । रहती जहांपर व्यग्रता सुख टिक न सकता नामको, दुख मानते थे सर्वदा वे विश्वके आरामको । सुन्दर, असुन्दर भावको तो दूरसे ही तज दिया, शम, दस, नियम इत्यादिसे परिपूर्ण रहता था हिया । जिस कामके आधीन हैं संसारके मानव सभी, उस कामका मुनिराजपर चलता न था चल भी कभी । पर वस्तुओं से राग अथवा द्वेष उनको था नहीं. वे शत्रुके संयोग से व्याकुल न होते थे कहीं । मृगराजके सन्मुख ऋषी निर्भीक रहते थे खड़े,
अतिशान्त मुद्रा देखकर मृगराज उनके पग पड़े । यो चित्त - चंड- विहङ्गका करते सदा अवरोध जो, देते जगत भरको मुदित निष्काम सुखप्रद घोष जो । ध्यानाग्निसे ही कर्म वनको दग्ध करना है जिन्हें,
अपना प्रबल संसारका सन्ताप हरना है जिन्हें । जो साधु सदुपदेश रूपी मेघ बरसाते यहां, जो भव्य रूपी चातकोंको नित छकाते हैं यहां । विंध्याद्रि १ जिनका है नगर, पर्वत- गुफा प्रासाद २ है,
१ विध्याचल पर्वत । २ महल |