Book Title: Itihas Ke Aaine Me Navangi Tikakar Abhaydevsuriji Ka Gaccha
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 15
________________ ‘पञ्चग्रंथी' ग्रंथ की रचना की। उसमें अपने गुरुभाई की भरपूर प्रशंसा की है, परंतु ‘खरतर' बिरुद प्राप्ति का निर्देश नहीं किया है। 2. जिनेश्वरसूरिजी के प्रधान शिष्य धनेश्वरसूरिजी अपर नाम जिनभद्राचार्यजी सं. 1095 में 'सुरसुंदरी चरित्र' की रचना की। उसमें खरतर बिरुद की बात नहीं है। 3. आ. श्री जिनचंद्रसूरिजी कृत 'संवेगरंगशाला' में, 4. नवाङ्गी टीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी कृत टीका ग्रंथों में तथा 5. सं. 1164 में श्री जिनवल्लभगणिकृत 'अष्ट सप्ततिका' आदि में खरतर बिरुद की बात नहीं है। 6. आ.श्री जिनदत्तसूरिजी ने 'गणधर सार्द्धशतक' में श्री हरिभद्रसूरिजी की स्तुति में 8 श्लोक लिखे हैं एवं हरिभद्रसूरिजी चैत्यवासी नहीं थे, उसका खुलासा भी किया है, जबकि श्री जिनेश्वरसूरिजी के लिए 13 श्लोक लिखे परंतु खरतर बिरुद प्राप्ति की बात नहीं लिखी है। * इतना ही नहीं, गणधर सार्द्धशतक के ऊपर कनकचन्द्र गणिजी ने सं. 1295 में टीका लिखी थी, उसी के आधार से सं. 1676 में पद्ममन्दिर गणिजी ने भी संक्षेप से टीका रची, उसमें भी 'खरतर' बिरुद की बात नहीं है। * तथा इतिहासवेत्ता पं. कल्याणविजयजी ने ‘पट्टावली पराग' में हस्तलिखित प्रत के आधार से बताया है कि सर्वराजगणिजी की 'गणधर-सार्द्धशतक' की लघुवृत्ति तथा सुमतिगणिजी की 'बृहद्वृत्ति' में भी ‘खरतर' बिरुद की बात नहीं है।*2 * जिनविजयजी संपादित 'कथाकोष प्रकरण' में सर्वराजगणिजी की *1. श्रीमज्जिनेश्वरगुरोरन्तेषदासीच्च कनकचन्द्रगणिः। शर-निधि-दिनकरवर्षे (1295), पूर्व तेन कृता वृत्तिः।।1।। रस-जलधि-षोडशमिते (1676), वर्षे पोषस्य शुद्धसप्तम्याम्। श्री जिनचंद्रगणाधिप-राज्ये जेसलसुरधराधे।।2।। तट्टीकादर्शादिह, संक्षिप्य च पद्ममन्दिरेणापि। लिलिखेऽनुग्रहबुद्धया, संक्षेपरुचिज्ञ जनहेतोः।।6।। *2 देखें परिशिष्ट 3, पृ. 92. ( इतिहास के आइने में - नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी का गच्छ /015 )

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