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( १२ ) के डि - क्रीडा १५०
(१३) "यह हम्मीर है जो कि दुर्ग के दृढ़ कपाट दे कर अड गया है; रणथम्भोर दुर्ग से भिड़ कर ही तू उसका समतुल्य जान सकेगा ।
कहा
(१४) हमीर ने है कि नगर के नाम को मलिन कर वह दोनों अमीरों को न देगा और न हाथी-घोड़े या गढ को अर्पित करेगा
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१४ )
के
यह सब राजपूती प्रथा है । गढ़ के पूजन लिए १९१ वीं चौपाई देखें ।
आगे गढ़ को विदा
भी है ।
१२. केडिका यह क्रीड़ा अर्थ उपयुक्त नहीं है । 'केड़ि' का अर्थ पीछे या पश्चात् होता है गुजराती और राजस्थानी में इस शब्द का प्रचुर प्रयोग पाया जाता है ।
१३. छपद की अन्तिम दो पंक्तियाँ ये हैं :रे अलावदीन हम्मीर यह, दिढकिमाड आडउ खरउ । रिणथंभि दुर्ग लगतडा, हिव जाणीयइ पटन्तरउ ॥१७६॥
यहां वास्तव में हम्मीर दृढ़ कपाट है। वह कपाट दे कर अड़ नहीं गया है । 'भडकिंवाड़' चारणी साहित्य का प्रसिद्ध शब्द है (भड़किवाड़ शब्द के लिए नेणसी की ख्यात, भाग २, पृष्ठ २७७ भी देखें । पटान्तर अर्थ शायद अन्तः सत्त्व हो ।
१४. यहाँ मूल पाठ 'न परणावउ डीकरी को गुप्तजी ने 'नयर णाव ऊंडीकरी' लिखा है और 'नगर' के नाम को मलिन कर' अर्थ करने की कष्ट कल्पना की है। देवलदे पुत्री के लिए बादशाह की मांग थी जिसके उत्तर में हम्मीर ने कहलाया कि “पुत्री नहीं परणाऊँगा"
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