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परिशिष्ट (३) ही मेरा स्वामी मुझे मार डालने को उद्यत है। अतः मैं तुम्हारा शरणागत हुआ हूं। यदि आप मेरी रक्षा कर सकें तो विश्वास दान दें। अन्यथा कहीं और जाऊंगा।" राजा बोला-मेरे शरणागत को स्वयं यम भी पराभूत नहीं कर सकता, तुम निर्भय होकर ठहरो। राजा के अभय दान से विश्वस्त वह यवन रणथम्भोर किले में निश्शंक होकर रहने लगा।
जब अदीन राज को इसका पता चला तो क्रोधपूर्वक हाथी, घोड़े और पैदलों की एक विशाल सेना लेकर, जिससे धरती हिल उठे और दिशायें कांप उठे, रास्ता तय करता रणथम्भौर आ पहुंचा और भयंकर धावा बोल दिया। हम्मीर ने किले की खाई और गहरी कर, बुों को शस्त्र सज्जित और द्वारों को सुरक्षित कर बाण वर्षा से धावे का उत्तर दिया। एक मुठभेड़ के बाद अदीन राज ने हम्मीर के पास दूत भेजा। दूत ने जाकर कहाराजन , श्रीमान् अदीनराज तुन्हें आदेश देते हैं कि मेरे अनिष्टकारी महिमसाहि को छोड़ मुझे सौंप दो। अन्यथा कल प्रातः ही तुम्हारे किले को मिट्टी में मिलाकर तुम्हें महीमसाह के साथ ही यमपुरी पहुंचा दूंगा” हम्मीर ने उत्तर दिया-दूत, क्या करू , तुम अवध्य हो । इसका उत्तर तो तुम्हारे स्वामी को वाणी से क्या तलवार की धारा से दिया जायगा। मेरे शरणागत को स्वयं यमराज भी देख नहीं सकता, बेचारा अदीनराज है क्या चीज ? दूत के फटकार पाकर आने का कारण अदीनराज क्रोधपूर्वक युद्ध की तैयारी में लगा। इसप्रकार दोनों ओर लगातार तीन वर्ष
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