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जाजा तुं धरि जाह, तुं परदेसि प्राहुणउ ।
म्हे रहीया गढ़ माहि, गढ गाढउ मेल्हां नहीं ॥ एक उक्ति मानो दूसरे का भावानुवाद है। जाजा के विदेशित्व के स्वीकृत होने पर कथा जिस रूप में बढ़ी हम ऊपर उसका निर्देश कर चुके हैं।
प्रसङ्गवश जाजा के विषय में इतना लिख कर हम फिर इन दोनों काव्यों में वर्णित घटनावली पर विचार करेंगे। यह सर्वसम्मत है कि अलाउद्दीन स्वयं रणथंभोर के घेरे के लिए पहुंचा। किन्तु हम्मीरायण में हम्मीर के रात्रि के आक्रमण के अनन्तर ही सुल्तान रणथंभोर आ पहुंचता है। हम्मीर महाकाव्य का घटना क्रम कुछ भिन्न है। उलुगखां की पराजय के बाद मीर भाइयों ने भोज की जगरा पर आक्रमण किया। भोज वहाँ न था। किन्तु उसका भाई और दूसरे कुटुम्बी मुहम्मदशाह के हाथ पड़े। भोज ने जाकर अलाउद्दीन के दरबार में पुकार की। किन्तु इस बार भी अलाउद्दीन स्वयं न आया। उसने उल्लू और निसुरत्तखान ( उल्लूगखां और नुसरतखाँ ) को ही युद्ध के लिए भेजा। सन्धि का बहाना कर अब की बार ये घाटी को पार कर गए । मुण्डी और प्रतौली में नुसरतखाँ और मण्डप १. जज्जल के महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व पर इमने आज से बारह वर्ष पूर्व
इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, १९४९, पृष्ठ २९२-२९५ पर एक लेख प्रकाशित किया था। डॉ० हजारीप्रसादजी द्विवेदी की 'हिन्दी साहित्य के आदिकाल' की 'आलोचना' में आलोचना करते समय भी हमने यह भी सिद्ध किया था कि प्राकृत गिल का जज्जल कवि नहीं अपितु हम्मीर का सेनापति जाजा है।
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