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( १३३ ) रक्षा में प्रयुक्त था।' और उसका यह धर्म संकीणार्थक न था। भर्बुद पर उसने ऋषभदेव का पूजन किया। छः दर्शनों की वह प्रतिपद पूजा करता ( हम्मीर महाकाव्य, १४, २)। “कर्ण ने कवच, शिवि ने मांस, बलि ने पृथ्वी, जीमूतवाहन ने आधा शरीर दिया। किन्तु उस हम्मीरदेव की, जिसने एक क्षण में शरणागत महिमासाहि ( मुहम्मद शाह ) के निमित्त अपना शरीर, पुत्र, कलत्रादि को कथाशेष कर दिया, कौन तुलना कर सकता है ?२ हठ के लिए हम्मीर प्रसिद्ध हो चुका है :
सिंह सवन सत्पुरुष वचन कदली फलत इकवार ।
त्रिया तेल हमीर हठ, चढ़े न दूजी वार ॥ किन्तु इससे भी अधिक प्रसिद्धि किसी ममय उसके शरणदान की रही होगी। इतिहासकार एसामी ने हम्मीर की इसी बात पर विशेष ध्यान दिया है नयचन्द्र और विद्यापति ने उसके शौर्य के साथ उसकी दयावीरता की प्रशंसा की है। हम्मीरायण में उसकी शरणागत रक्षा और स्वाभिमान को लक्षित कर ‘माण्डउ' व्यास नाल्ह माट से कहलाता है :
इय चहुवाण हमीर दे, सरणाई रखपाल । अलावदीन तुझ आगलउ, मोटउ मूउ भूपाल ॥ ३०॥ मान न मेल्यउ आपणउ, नमी न दीध्यउ केम नाम हुवउ अविचल मही, चंद सूर दुय जा (जे)
म॥३०८ ॥ १. देखें १३४५ के शिलालेखका श्लोक ४, हम्मीर महाकाव्य १४.२ रणथम्भोर हाथ आते हो मुसल्मानों ने वहां के बाहडेश्वरादि मन्दिरों को नष्ट कर दिया।
२. हम्मीर महाकाव्य, १४, १७ ।
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