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"हम अपनी भूमि के लिए प्राण त्याग के लिए भी इच्छुक रहते हैं। यह क्षत्रियों का वह धर्म है जो प्रलयकाल में भी प्रलुप्त नहीं होता। तुम विदेशी हो, इसलिए आपत्तियुक्त इस स्थान में तुम्हारा रहना उचित नहीं है। जहाँ कहीं जाने की इच्छा हो, कहो मैं तुम्हें वहां पहुंचा दूं।"
पुरुष परीक्षा का कथन और भी ध्येय है। जब हम्मीर जाजादि से चले जाने के लिए कहता है तो वे उत्तर देते हैं :
"आप निरपराध राजा ( होते हुए भी) शरणागत पर कृपाकर संग्राम में मरण को अङ्गीकृत करते हैं। हम आपकी दी हुई आजीविका खानेवाले हैं। अब स्वामी आपको छोड़कर हम कैसे कापुरुषों की तरह आचरण करें। किन्तु कल सुबह महाराज के शत्रु को मारकर स्वामी के मनोरथ को पूर्ण करेंगे। हाँ, इस बिचारे यवन को भेज दीजिए।" यवन ने कहा, "हे देव ! केवल एक विदेशी की रक्षा के लिए आप अपने पुत्र, स्त्री और राज्य को क्यों नष्ट कर रहे हैं। राजाने कहा, 'यवन, ऐसा मत कहो। किन्तु यदि तुम किसी स्थान को निर्भय समझो तो मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा दूं।" (परिशिष्ट ३, पृ० ५४)। उक्ति-प्रत्युक्ति से स्पष्ट है कि हम्मीर के योद्धा-समाज में केवल एक विदेशी है, और वह जाजा नहीं, अपितु महिमासाहि है।
'भाण्डउ' ने न जाने क्यों जाजा पर विदेशित्व का ही आरोपण नहीं किया, अपितु महिमासाहि के लिए प्रयुक्त युक्तियों को भी जाजा के लिए प्रयुक्त किया है। महिमासाहि को जो वचन हम्मीर ने कहे थे उन्हें हम अभी उद्धृत कर चुके हैं। मांडउ की कृति में हम्मीर प्रायः वही शब्द जाजा से कहता है :- .
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