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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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एक वस्तु नहीं है। इस कारण राग का कार्य, ज्ञान में नहीं है; ज्ञान, राग का कर्ता नहीं है। ... अहो! यह तो भेदज्ञान करके आत्मा का स्वभाव बताते हैं। भाई ! तुझे अपने आत्मा को इस भवभ्रमण से छुड़ाने की विधि, सन्त समझाते हैं । तेरे चैतन्यस्वरूप को भूलकर, पर के कर्तृत्व की मिथ्याबुद्धि से तू अनन्त काल दु:खी हुआ है। अब उससे छूटने के लिये यह तेरे सच्चे स्वरूप की बात है। यह अपना स्वरूप है, इसलिए सूझ पड़े । समझ में आवे ऐसा है । अभ्यास नहीं होने से कठिन लगता है परन्तु रुचिपूर्वक प्रयत्न करने पर, सब समझ में आ सकता है। अपना स्वरूप अपने को क्यों नहीं समझ में आयेगा? . तेरा आत्मा कैसा है? शान्त, शीतल, अकषायस्वरूप, ज्ञातादृष्टा आत्मा है। शान्तरस से भरपूर ज्ञान, वह कषायों का अकर्ता, अभोक्ता ही है। आत्मा का द्रव्यस्वभाव तो त्रिकाल ऐसा है ही और उसका भान होने पर जो शुद्धज्ञानपर्याय प्रगट होकर, आत्मा के साथ अभेद हुई, उस पर्याय में भी रागादि का कर्ता-भोक्तापना नहीं है। राग की शुभवृत्ति उत्पन्न हो, उसका कर्ता-भोक्तापना भी ज्ञानी के ज्ञान में नहीं है क्योंकि उस शुभवृत्ति के साथ उसका ज्ञान, एकमेक नहीं होता है किन्तु पृथक् हो परिणमता है।
अरे! राग तो ज्ञान से विरुद्ध भाव है; राग में तो आकुलतारूप अग्नि है और ज्ञान तो शान्तरस से सराबोर है। ज्ञान से विरुद्ध ऐसे राग से मोक्षमार्ग होना मानना तो दुश्मन से लाभ होना मानने जैसा है। भाई! राग में ज्ञान कभी तन्मय नहीं होता तो वह ज्ञान, राग का साधन कैसे होगा और राग को वह अपना साधन कैसे बनायेगा?