Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
३७
रूपान्तर ने ही जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका से स्वाध्यायी जनों को लाभान्वित किया है। उसका यह संस्कृत रूपान्तर न होता, तो पं. टोडरमलजी ढूंढारी भाषा में उसका अनुवाद नहीं कर सकते थे। मन्दप्रवोधिका टीका ___यह अपूर्ण टीका गोम्मटसार जीवकाण्ड की तीन सौ तेरासी गाथा पर्यन्त ही उपलब्ध है। अर्थात् उसके आधे भाग से कुछ अधिक पर ही है। कलकत्ता संस्करण में प्रथम संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका दी गयी है। उसके नीचे मन्दप्रबोधिका दी गयी है। गाथा 383 के नीचे प्रथम जीवतत्त्वप्रदीपिका देकर मन्दप्रबोधिका के सामने एक वाक्य दिया है
'श्रीमदभयचन्द्रसैद्धान्तचक्रवर्तिविहितव्याख्यानं विश्रान्तमिति कर्णाटवृत्त्यनुसारमनवदति।'
अर्थात् श्रीमान् अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के द्वारा किया गया व्याख्यान (टीका) समाप्त हुआ, इसलिए कर्णाटवृत्ति के अनुसार अनुवाद करता हूँ।
यह वाक्य किसका हो सकता है? केशववर्णी की टीका में तो इस प्रकार का वाक्य नहीं है; न वह ऐसा लिख ही सकते हैं, क्योंकि उनकी टीका ही कर्णाटवृत्ति है। वह उसके अनुसार अनुवाद करने की बात क्यों लिखेंगे? यह वाक्य तो संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका के रचयिता का ही हो सकता है। हमारे पास गोम्मटसार जीवकाण्ड की जो हस्तलिखित प्रति है, उसमें वह पत्र ही नहीं है। फिर भी हमें यह वाक्य उनका ही प्रतीत होता है। किन्तु उस पर भी यह आशंका होना स्वाभाविक है कि संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका के कर्ता तो प्रारम्भ में ही यह लिख चुके हैं कि कर्णाटवृत्ति का आश्रय लेकर मैं यह टीका लिखता हूँ। ऐसी स्थिति में मन्दप्रबोधिका के समाप्त होने पर उन्होंने ऐसा क्यों लिखा? इसके समाधान के लिए हमें तीनों टीकाओं का मिलान करना आवश्यक प्रतीत हुआ। और उससे यह निष्कर्ष निकला कि तीनों की वाक्य-रचना और विषय-वर्णन में बहुत साम्य है। अन्तर केवल कर्णाटक भाषागत है। अर्थात् मन्दप्रबोधिका के संस्कृत वाक्य तथा कर्नाटवृत्ति के कन्नड़ वाक्यों में भी समानता है। अतः कर्णाटवृत्ति का आश्रय लेकर संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका की रचना करनेवाले ने कर्णाटवृत्ति का संस्कृत रूपान्तर करने में मन्दप्रबोधिका से मदद ली हो, यह सम्भव है। मन्दप्रबोधिका समाप्त होने पर उन्हें केवल कर्णाटवृत्ति का ही आश्रय लेना पड़ा है, उसी की सचना उन्होंने इस वाक्य के द्वारा की प्रतीत होती है।
इसका स्पष्ट आशय यह है कि केशववर्णी के सामने कर्णाटवृत्ति रचते समय मन्दप्रबोधिका वर्तमान थी। उन्होंने अपनी कन्नड वत्ति में उसके रचयिता अभयचन्द्र चक्रवर्ती का निर्देश किया है। यह बात डॉ. ए.एन. उपाध्ये ने अपने उक्त लेख में तीनों टीकाओं से एक उद्धरण देकर स्पष्ट की है। हम भी यहाँ उस उद्धरण को देने का लोभ संवरण नहीं कर सकते। वह उद्धरण इस प्रकार है--
देसविरदे पमत्ते इदरे य खओवसमियभावो दु। सो खल चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा उवरिं ॥१३॥
मन्दप्रबोधिका
देशविरते प्रमत्तविरते इतरस्मिन्नप्रमत्तविरते च क्षायोपशमिकचारित्रलक्षण एव भावो वर्तते। देशविरते प्रत्याख्यानावरणकषायाणां सर्वघातिस्पर्धकोदयाभावलक्षणे क्षये तेषामेव हीनानुभागरूपतया परिणतानां सदवस्थालक्षणे उपशमे च, देशघातिस्पर्धकोदयसहिते उत्पन्न देशसंयमरूपचारित्रं क्षायोपशमिकम्। प्रमत्तविरते तीव्रानुभागं संज्वलनकषायाणां प्रागुक्तलक्षणक्षयोपशमसमुत्पन्नसंयमरूपं प्रमादमलिनं सकलचारित्रं क्षायोपशमिकम् । अत्र संज्वलानुभागानां प्रमादजनकत्वमेव तीव्रत्वम्। अप्रमत्तविरते मन्दानुभागसंज्वलनकषायाणांप्रागुक्त क्षयोपशमोत्पन्नसंयमरूपं निर्मलं सकलचारित्रं क्षायोपशमिकम् ।
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