Book Title: Geet Vitrag prabandh
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 49
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गीतवीतरागप्रबन्धः व्यैहरदतिसुरभिभरितवसन्ते नर्तनसक्तजनेन समं निजत्रिरहिसुरस्य दुरन्ते ॥ १ ॥ ध्रुवपदम् । उन्नतमदनमनोहर विहरवधूजनजनित विलापे 'सन्नतमधुकर सुमसमवाय निराकुलबकुलकलापे । व्यवहरदतिसुरभिभरितवसन्ते नर्तनसक्तजनेन समं निजविरहिसुरस्य दुरन्ते ॥ २ ॥ द्विरदसमूह सुमृगमदनिभगुणसुषमतमाल कमाले स्मरवश चितविभेदनमदननखरसमकिंशुकजालें । ४ व्यहरदतिसुरभिभरितवसन्ते नर्तनसक्तजनेन समं निजविरहिसुरस्य दुरन्ते ।। ३ ।। मनसिज परिवृढ है मगदानिभचम्पकपुष्पविकासे विनतेन्दिन्दिरपाट लिवि सरकृतातनु तूणविभासे । व्यहरदतिसुरभिभरितवसन्ते नर्तनसक्तजनेन समं निजविरहिसुरस्य दुरन्ते ॥ ४ ॥ रतिपतिभूपतिचामरत तिनिभवि दलितकुसुमरसाले अति सुरभीकृतदिग्वनिता मुखमलयज पङक्तिविशाले । ३ ) S व्यवहदघति । ४) M-reading कलापे । ५) सुमम् = पुष्पम् । ६ ) B भेदनमन्मथस खिसम । ७) हैम-गदा- निभ । ८) कृत-अतनु-तूण | For Private And Personal Use Only و

Loading...

Page Navigation
1 ... 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119