Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 29
________________ जा पहुँचा। अपनी एक एड के झटके से, अपने घोड़े को कलिंगाधीश के सम्मुख कर, निर्भीक और निरावेग स्वर में बोले पार्श्वकुमार : __ "वाराणसी का राजपुत्र, यवनेश्वर का अभिवादन करता है।" उसके पुसकराते मृदु-सौच और मित्र-मुख को सम्मुख पाकर ययन अवाक् देखता रह गया ।.... "यवर्नेन्द्र की इच्छा पूरी करने को काश्यप-पुत्र प्रस्तुत हैं।" "कौन...? वाराणसेय पार्श्वकमार ?" "आभार ! मुझे आपने पहचाना।'' यवन की पेशानी के बल गायब हो गये। तनी हुई शिराएँ ढीली पड़ गयीं। ''युद्ध करने आये हो, कि खेलने...?" "जो चाहें। हर तरह आपकी इच्छा पूरी करने आया हूँ।" "अभी तुम्हारे खेलने के दिन हैं पार्श्वकुमार ! युद्ध खेल नहीं !" "पारस तो केवल खेलता है, कलिंगेन्द्र । युद्ध भी !" "वाराणसी का सैन्च तो कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा। और तुम्हारे कवच, शिरस्त्राण और शस्त्र क्या मेरे सैनिकों ने छीन लिये हैं ?" "वह मैं धारण ही नहीं करता राजेश्वर, तो कोई छीनेगा क्या ? और सैन्य मुझे अनावश्यक है। मैं ही अपने लिए और आपके लिए काफी हूँ।" "क्या चाहते हो ?" "जो आप चाहें !" ''मेरा दुमसे कोई सरोकार नहीं । क्या प्रभावती का हरण करने आये हो ?" __ "हरण और वरण, दोनों से परे, प्रभावती अपनी जगह पर है। मैं अपनो जगह पर हूँ। अपनी निर्णायक वह स्वयं है, मैं और आप नहीं। पर उसका अपहरण कोई नहीं कर सकता, यह मैं देखेंगा।" "तुम कौन होते हो उसके ?" "अकारण परित्राता, रक्षक, क्षत्रिय : उसी का नहीं, हर संकटग्रस्त चूडान्न को प्रभा : 38

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