Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 139
________________ "अच्छा मौसी, तुम विवाह कब करोगी ?" "पहले तेरा, फिर मेरा। मैं छोटी हूँ कि नहीं तुझसे ?" "एक साथ ही हो जाए, तो क्या हरन है ?" । "मतलब..." "यही कि तुम करो ब्याह, तो मैं भी तैयार हूँ...?" बुर: दिन, धन, ची चबाती रही। फिर सहसा ही बड़ी सारी उज्जवल आँखें उचकाकर चोली : "और मान लो, मैं ब्याह करूँ ही नहीं !" "तो मौसी, जान लो, कि मैं भी नहीं करूँगा।'' "ये तो कोई बात न हुई !" "बस, यही तो एक मात्र बात है, चन्दन !" "अच्छा, वचन देती हूँ, मैं विवाह करूँगी । तू भी वचन दे !' "बर्द्धमान भविष्य में नहीं जीता। वह सदा वर्तमान में जीता है। इसी क्षण वह प्रस्तुत है। वह कहता नहीं, बस, करता है।" "बर्द्धमान...!" "चन्दन...!" एक अभंग विराट् मौन कक्ष में जाने कब तक प्राप्त रहा। काला यहाँ अनुपस्थित था। चन्दना उठकर खड़ी हो गयी। फिर मेरे सम्मुख निश्चल अवलोकती रह गयी। .....और अगले ही क्षण, उसने माथे पर आँचल ओढ़, झुककर पहावीर के चरण छू लिये। "कब मिलोगे फिर ?" "जब चाहोगी।...जब तुम पुकारोगी, आऊँगा !" और माथे पर ओढ़े पल्ले की दोनों कोरों को, चिमटी से चिबुक पर कसती-सी चन्दना धीर गति से चलती हुई, कक्ष की सीमा से निाक्रान्त हो गयी।... (13 सितम्बर, 1978 जब पुकारोगी, आऊंगा : 143

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