Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 145
________________ साथ चलकर भगवत्पाद जिनसेन दंव के समक्ष अपनी यह कसौटी प्रस्तुत करनी होगी। वे आरण्यक अवधूत, पक्षियों की लरह अनियतवासी हैं। शीन ही पता लगवायेंगे हम कि श्रीगुरुपाद इस समय किस भूमि को अपने बिहार से पावन कर रहे हैं। अपनी प्रजा और पण्डित्त-मण्डली को आश्वस्त करें कि उनकी इच्छा पूरी की जाएगी।...'' "पृथिवी वल्लभ परम भटार सम्राट् अमोघवर्ष की जय हो !" । कहकर अभिवादनपूर्वक पहापण्डित जयतुंगदेव एक उद्दण्ड विजय-दपं के साथ राज-दरबार से विदा हो गये। तुंगभद्रा नदी के पर पार की वह अहिच्छत्र नामक महाक्नी मानवों के लिए अगम्य मानी जाती है। यहाँ गहरी सुगन्ध से व्याप्त एक सघन चन्दन-वन आकाश के तटों तक चला गया है। भग़ाना है. यहाँ की रमणीयता ! चन्दन-वृक्षों की जड़ों, घड़ों और डालों तक को बड़े-बड़े भुजंगप नाग गाढ़ आलिंगन में बाँधे हुए हैं। तलदेश की, नाना आदिम सुगन्धों से आविल वनस्पतियों के विवरों में नाग-नागिनियों के मणि-दीप्त युगल मानो चिरन्तन मैथुन में लवलीन हैं। रह-रहकर हवा में मरपसते पत्तों और पतारों में विचित्र ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। पनुष्य के यहाँ होने की कल्पना भी नहीं हो सकती। किन्हीं अदृश्य पदचापों से सारी अटवी चाहे जब थरथरा उठती है। उस वन के गहन में, पूर्वीच घाट के पाद-प्रान्न की एक गुफा के बाहर, फणामण्डल से ठाये किसी चन्द्रन-वृक्ष की छाँव में, कोई स्फटिक-सा पारदर्शी नग्न पुरुष सामने रखे शिला-पट्ट पर कुछ लिख रहा है। हरे पत्थर के एक ओंडे चषक में पर्वत के धातु-द्रव की रोशनाई है। और ताइ-पत्रों की एक-एक थप्पी पर उसकी वैतस-लेखनी अविराम चल रही है। इस भयंकर वन-भूमि में सम्राट्-शार्दूल अमोयवर्ष के साथ चलते हुए त्रिभुवन-मोहिनी मां : 149

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