Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 156
________________ पुरुष, एक सरमणी दिगम्बरी माँ की गोद में उसंगित है।... ____ ...उसके पाद-प्रान्तर में आर्यावर्त की सहस्रों सुन्दरियों के आँसू-भीगे नयन और दूध भीने आँचल मानों उसे झेलने को बिछ गये हैं।... सर्वशास्त्रों के पारावार, पाण्डित्य-प्रभाकर जयतुंगदेव अपनी समस्त पण्डित-मण्डली के साथ, सर्वहारा होकर इस ब्रह्मर्पि जिनसेन के चरणों में ढलक पड़े। और सहस्र-सहस्र मानव-मेदिनी समुद्र में मिलने को आकुल नदियों की तरह, भगवान् जिनसेन के चरण-कमलों की ओर उमड़ती चली आयी।... ....सम्राट् अमोघवर्ष जाने कब, जाने कहाँ अन्तर्धान हो गये...! और आयर्यावर्त का सूना साम्राजी सिंहासन, जाने किसी की प्रतीक्षा में विस्तीर्ण होता चला जा रहा था...? नवम्बर, 1973) दिल रत LU] 18 irer ishe atiy osti Del thE 160 : एक और नीलांजना

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