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उस मदिर मूच्छां में, जो आत्महारा न होकर, आत्मलीन होने की सामर्थ्य रखता है, वहीं तुम्हारो गोद के कमलासन पर युग-सूर्य तीर्थंकर होकर उदय होता है। ओ आत्म-विमोहिनी रमणी माँ, परम परमेश्वर भगवान् ऋपभदेव तुम्हारी वारुणी के उस समुद्र को तैर गये थे, इसी से तुम्हारे ऊरु-तट पर वे कैवल्य-सूर्य होकर उत्तीर्ण हुए घे : अवतीर्ण हुए थे। ___...तुम्हारे जानु-युगल की सन्धि पर प्राणियों की भव-रात्रि या तो
अभेद्य हो उठती है, या सहसा ही फट पड़ती है। तुम्हारे जघनों में एक साथ चेतना के आरोहण और अवरोहण की आवाहन-भरी नसैनियों हैं। हे अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों की जनेता और अभय-शरणदात्री माता, तुम्हारे श्रीचरणों के पद्म-संचार से प्रतिपल नव्य-नूतन सृष्टियों की ऊषाएँ फूटती रहती हैं। मृत्यु के भवारण्य में जी रही राशि-राशि जीय-योनियों को तुम्हारे पाद स्पर्श से अज्ञात, अबूझ समरत्व का आश्वासन प्राप्त होता रहता हैं।...
'ओ सर्व की परम काम्या, आत्म-रमणी माँ, अपने कवि जिनसेन को अपनी श्रीकपल गोद में उत्सांगत कर, चरम आलिंगन और परम मुक्ति का सुख एक साथ प्रदान करो।...ओ मेरी आत्मा...माँ...मौ...म....!" ।
...और सहसा ही कधि निर्वाक हो गये।...परावाक् हो गये । वे महाभाव की परात्पर रस-समाधि में अन्तलीन हो गये ।...एक विराट और अखण्ड निस्तब्धता मानो दिगन्तों तक व्याप गयी। विश्व की सारी गतियाँ जैसे एकाएक विराम पा गयीं। अपने आपमें परिणमनशील विशुद्ध, अद्वैत महासत्ता के अतिरिक्त वहां कछ भी शेष नहीं रह गया। आराधक और आराध्य, वक्ता और श्रोता, काय और भावक एक अभेद नौरवता में तदाकार हो गये।... ___...हजारों-हजारों आँखों की एकाग्र अपलक दृष्टि ने देखा : उस बीच के ऊँचे तख्ते पर एक अतिक्रान्त नग्न पुरुष निश्चल, निर्विकार कायोत्सर्ग मुद्रा में लीन है। वह एकबारगी ही निरा निर्मल शिशु है : और निरतिशय कामेश्वर है।...और सबके अन्तरचक्षुओं में झलका एक सर्वरमण दिगम्बर
त्रिभुवन-मोहिनी मौं : 159