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"तुम्हारे मुख-मण्डल की सौम्य सुवण-आभा य, सार सूया, चन्द्रमाको ग्रह-नक्षत्रां की ज्योतियों समरस, संवादी. समंजस हागर व्याप्त हैं। समार लिलार की पारिया विनविकरात लोधी
नान रूप से भारवर हैं। तुम्हारे भ्र-मध्य के तिलक में, वे निखिल क एकीभूत आकर्षण का केन्द्र बनकर स्तम्भित हैं। ___'तुम्हारों भौंहों के तने हुए शृंगार धनुष, हमारे प्राणों को तीरों की तरह खींचकर, नाना काम्य वस्तुओं को वींधते रहते हैं। तुम्हारी आँखों के सर्वस्वहारी कटाक्ष, हमारे मनो-मदन के ममों को प्रतिपत्न अनुत्तर वासना से आलोड़ित करते रहते हैं। ऐसे आरतिदायक हैं इनके आघात, कि उनसे हमारी वासना चुक चुक जाती है। तुम्हारी नासिका सुमेरु की तरह क्रमशः ऊपर उठती हुई स्वर्ग का तरान्त स्पर्श करती है। तुम्हारे ओष्ठाघरों में सर्व देश-काल के सहप्रदल कमली के मादंब, मकरन्द और सौरभ सम्पुटित हैं। इन ओष्ठों से वातावरण में निरन्तर चुम्बन प्रवाहित हो रहे हैं। उनकी मधुर परस-पैशलता रह-रहकर प्राणियों को एक अपूर्व आत्म चुम्बन के रस से आप्लावित कर देती है। तुम्हारे कपोलों में साहस्रों उशियों के कैग्नि-सरोवरों की रक्ताभ कान्ति झलमला रही है। प्रणयी युगलों के अब तक लिच-दिये गये सारे चुम्बन, तुम्हारी कपोल-पाली के मुस्कान-तटों से झाँक रहे हैं। तुम्हारी चियुक की गोलाई में से जम्बूदीप पृथ्वी पर उतर आया है। तुम्हारी कम्बुग्रीवा की रेखाओं में जाने कितने जन्मों की ममताएँ उभर रही हैं। लोक-मध्य में त्रसनाथी के समान है तुम्हारी ग्रीवा का प्रदेश । उसके रेखा-पटलों में चारों निकाय के राशिकृत जीव ममताकुल होकर शरण खोज रहे हैं। ___“ओ भुवनेश्वरी, तुम्हारे आलुलायित कुन्तल छाये कन्धों के अम्बावन में पानो प्राण को अन्तिम अवलम्बन मिलता है। इन अमा-भरे कन्धों पर, जाने कितने आत्महारा पुरुषोत्तप अपने अहंकार को भूलकर, सर ढाल देने को व्याकुल होते हैं। तुम्हारे वाहुमूलों के सुगोपित गहरों में समुद्रों को मी अपने परिरम्भण में कसकर बाँध लेनेवाला कसाव कसकता रहता है।
त्रिभुवन-मोहिनी मौं : 157