Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 151
________________ निर्बाध सुख और मर्त्यलोक के सारे भोग, पराक्रम, संघर्ष और व्ययाएँ जिनके हृत्कमल में निरन्तर संवेदित हैं; त्रिलोक और त्रिकाल के अनन्त परिणमन जिनकी आल्प्रभा में अनुक्षण तरांगेत हैं। उन पूर्णकाम और परात्पर सुन्दर अहेतु ऋषभदेव के चरणों में अपने अहं को निःशेष समर्पित करता हूँ ।... "आर्यावर्त सुनें, उसके पर्वत, समुद्र, नदियाँ, वन-कान्तार सुनें! लोक के सकल चराचर सुनें ! हिमवान् सुनें : समुद्रवलयित वसुन्धरा सुनें! भारत के समस्त नर-नारीजन सुनें !.... "जिनसेन अपनी कविता की पुनरावृत्ति नहीं करता। उसकी कविता प्रतिपल नव-नूतन होती है। वस्तु सौन्दर्य प्रतिक्षण परिणमनशील है। उसमें पल-पल नव-नव्य भाव और रूप प्रकट हो रहे हैं। जिनसेन उस निरन्तर परिणमन का नवनवोन्मेषशाली कवि है । " मगवती माँ मरुदेवी अनन्त सुन्दरी हैं। अगाध और असीम है उनका रूप और लावण्य| महापुराण के कुछ श्लोकों पर बह सौन्दर्य समाप्त नहीं ।... "वे त्रिभुवन मोहिनी माँ, प्रतिक्षण मेरी आँखों के सामने नितनव्य होकर प्रकट हो रही हैं । अभी, यहाँ, ठीक इस पल में वे माँ सत्ता के अनन्त समुद्र में से अँगड़ाई भरती हुई, एक अपूर्व लावण्य-प्रभा के साथ प्रकट हो रही हैं ...." "अहा, शब्दों के एकदेश कथन में, माँ के इस अनन्त रमणी रूप का वन कैसे सम्भव है ? अनेकान्तिनी है उनकी रूप-विभा नामा भावों, संवेदनों, भंगिमाओं, सम्बन्धों, सन्दर्भों में वे एक साथ व्यक्त हो रही हैं । काल से अतीत, वे अपने स्व-समय में एकबारगी ही रमणी हैं, माँ हैं, धात्री हैं, विधात्री हैं, वधू हैं, सबांगना हैं, उवंशी हैं, तिलोत्तमा हैं, सर्वसंहारिणी हैं, संसारहारिणी- अरे वे क्या नहीं हैं इन सबका वे सारांश हैं। इन सबका वे एकाग्र और पुंजीभूत रूप-विग्रह हैं। जिस प्राणी की जैसी चाह है जैसा माब है, उसके अनुरूप वे उसकी चेतना के चषक में एकान्त अपनी होकर त्रिभुवन मोहिनी माँ 155

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