Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 150
________________ C कन्याकुमारी ते काश्मीर और काम्बोज से कामरूप तक की हवाओं में एक उदन्त गूंज उठा। कर्नाटक के राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्ष की राज सभा में, आर्यावर्त के कविकुल- सूर्य आयं जिनसेन अपनी चरम कामिक और शृंगारिक कविता का खुलेआम पाठ करेंगे। वहाँ उनके निर्ग्रन्थ दिगम्बरत्व को शूली पर चढ़कर सिद्ध होना पड़ेगा !... ... और नियत तिथि के एक प्रातःकाल, कर्नाटक की साम्राज्ञी राज सभा का भवन, समस्त आर्यावर्त की प्रतिनिधि प्रज्ञाओं से खचाखच भरा है। उसमें राजा श्रेष्ठी, धुरन्धर धमांचार्य, प्रकाण्ड पण्डित - मण्डल, अनेक वनचारी योगी-मुनि, राज- अन्तःपुरों की असूर्यम्पश्या रानियाँ और हजारों की संख्या में सर्वसाधारण स्त्री-पुरुष और बालक तक उपस्थित हैं। ऐसी उसाउल मेदिनी कि उस पर थालो लुढ़कती चली जाए। और ऐसी उत्सुक निस्तब्धता व्याप्त है कि सुई तक गिरे तो सुनाई पड़ जाए । सभा भवन के बीचोबीच एक ऊँचे तख्त पर नग्न खड्ग के समान तेजोमन कवि-योगीश्वर आचार्य जिनसेन निश्चल कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं । बालसूर्य की-सी रक्ताम कान्ति का मण्डल उनकी पवित्र चन्दनी काया से प्रस्फुरित हो रहा है। वे मृगशावक की तरह निर्दोष हैं और मृगेन्द्र के समान प्रचण्ड प्रतापी हैं। सम्राट् अमोघवर्ष सिंहासन त्यागकर, जानुओं के बल दण्डवत् मुद्रा में, श्रीगुरु चरणों में आसीन हैं। पाण्डित्य प्रभाकर जयतुंगदेव भारत के चुनिन्दा पण्डित - परिकर के साथ, एक दूसरे ऊँचे तख्त पर सन्नद्ध बैटे हैं हजारों आँखों की टकटकी, ठहरी हुई बिजली के समान विद्युत्-प्रभ जिनसेन पर लगी हुई है। ... और सहसा ही जैसे समुद्र- गर्भ में से गम्भीर शंखनाद सुनाई पड़ा : "कैवल्य की विशुद्ध सौन्दर्य प्रभा से जिनकी देह भास्वर है; करोड़ों सूर्य जिनमें एक साथ उद्योतमान है। नरकों की अकथ यातनाएँ, स्वर्गों के 154 एक और नीलांजना

Loading...

Page Navigation
1 ... 148 149 150 151 152 153 154 155 156