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हमारे दर्शनावरणी और ज्ञानावरणी कर्म में है, जिसकी पड़ियाँ हमारी आँखों पर बँधी हुई हैं। वह मात्र विभाव की क्षणिक माचा है, छलना है। आप चिन्ता न करें, वे परम नग्ना इतनी समर्थ हैं, कि स्वयं ही अपने निरावरण सौन्दर्य के तेज से, हमारे विकार के इस अवशिष्ट आवरण को भी चीर फेंकेंगी। अपनी सन्तानों को उनके प्रकृत उद्गम में लौटाकर अपनी छाती पर उन्हें आश्वस्त कर देंगी.... ।"
“क्षमा करें, महाकवि, वह सब निरा दार्शनिक बाजाल है। यधार्थ यह है, कि माँ को आपने माँ नहीं रहने दिया है। उसे निरी रमणी बनाकर छोड़ दिया है...!"
"भगवती आत्मा, अपने प्रकृत स्वरूप में ही रमणी हैं, आयुष्यमान् ! इसी से बारम्बार जिनेश्वरों के श्रीमुख से मुक्ति रमणी के साथ मुक्त रमण की बात उच्चरित हुई है। और माँ पहले रमणी ही हैं, तभी तो मैं जन्मा, आप जन्मे, भगवान् ऋषभदेव जन्मे, यह सारा जगत् जन्मा और तब वे रमणी हो माँ हो गयीं। एकान्त, एकांगी दर्शन किया हैं, इसी से तो विकार आया है मन में सत्ता अनेकान्ती है, अनन्त आयामी है। सो नारी भी नानामुखी है, नानारूपिणी है, नानाभाविनी है, नानाधर्मिणी है. जीवन की लीला में।... जिस क्षण नारी नितान्त रमणी होती है, चरम रमण के उस एकान्त क्षण में भी वह अविभाज्य रूप से आत्मदानमयी, सर्वस्व समर्पणवती माँ भी होती है।...खण्ड दर्शन से विकार और काम-लिप्सा जागी है, पण्डितराज, अखण्ड दर्शन-भावन करें आप मेरी मरुदेवी के सौन्दर्य का, तो मेरी वे पूर्णकामिनी रमणी-माँ स्वयं आपकी गोद में लेकर आपके सारे विकार सदा को शान्त कर देंगी। आपने वस्तु के एक अन्त को ही देखा है, तो उसका अनन्त हाथ से निकल गया है। आपने वस्तु को समग्र और निखिल के सन्दर्भ तोड़कर देखा है। आपने रमणी और माँ को विभाजित करके देखा है। आपने रमणी से माँ को छीन लिया है : और माँ से रमणी को छीन लिया है। इसी कारण सत्य का ऐसा अपलाप हुआ है। मिथ्या और विकार की माया में आप भटके हैं। पाप, कलुष,
152 एक और नीलांजना