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शास्त्रों के सागर महापण्डित जयतुंगदेव के ज्ञान का तलिया उलटकर बाहर आ गया। किसी अज्ञात प्रेरणा के मान्त्रिक सम्मोहन से खिंचे वे इस वन की अगम्यता में, सम्राट् का मात्र अनुसरण करते चले जा रहे हैं।
बरबस हो उनकी आँखें उठीं तो देखा कि मानों सामने को गुफा का अगम अँधियारा एक भास्वर पुरुष मूर्ति में आकृत होकर अपने तेज के फल से, पर्वत - शिलाओं को तराशता चला जा रहा है।...
प्रणिपात से उठकर दण्डवत् मुद्रा में ज्यों ही सम्राट् और महापण्डित बैठे कि, सुनाई पड़ा :
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"तुम्हारे पण्डितों और प्रजाओं का आरोप सही है, आयुष्मान् ! जिनसेन से अधिक कामी लोक में और कौन हो सकता है ! जिनसेन महाकामी है क्योंकि वह सर्वकामी है।...पूर्णकाम है मेरा जीवन ऐसा अदम्य है मेरा काम, कि वस्त्र की बाधा तक मुझे असह्य हो गयी। नितान्त नग्न होकर ही चैन पा सका। ताकि इस अनन्त सुन्दरी सृष्टि के अणु - अणु का अटूट आलिंगन पा सकूँ। हवा और पानी की हर गुजरती लहर का अपने अंग-अंग से रभस कर सकूँ। नित्य भोग, निरन्तर मैथुन हो जाए मेरा जीवन । विधि-निषेध से परे प्रकृति के इस निर्वाध साम्राज्य में आकर, मैं इसके जलों माटियों, वनस्पतियों, प्राणियों के साथ समाधि-शयन में अनिर्वार डूबता चला गया। इसी अखण्ड महामिलन में से आ रही है मेरी कविता | उस पर तुम्हें और तुम्हारी प्रजाओं को क्या आपत्ति है ?"
"देवार्य, आपके श्रृंगारिक काव्य से लोक-मानस विकार - ग्रस्त हो गया है। उसने उन्हें कामुकता से व्याकुल कर दिया है ।"
"तो इष्ट ही हुआ है, पण्डितराज काम व्याकुलता की घरा सीमा पर पहुँचकर ही निराकुल आत्मकाम हो सकता है। विकार अभाव का अन्धकार हैं। वह भीतर दबा है, तो उसको बाहर आ जाना चाहिए। यह उमड़-घुमड़कर बाहर आया है, तो मेरी कविता सार्थक हो गयी। भीतर का चोर साहुकार बनकर सामने आ गया। तो जानो कि मुक्ति का मार्ग सरल हो गया ।... और सुनो पण्डितराज, काम तो वस्तु स्वभाव है। वह वस्तु
150 एक और नोलांजना