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हैं। मुझे ठीक-ठी. तीति है कि कातियास और जिनसे का सरस्वती । का आनन्द-साम्राज्य, केवल मानव-हदय में ही नहीं, तमाप जड़-जंगम प्रकृति के आर-पार व्याप्त है। ऐसे कवियों की वाणी मात्र कथन नहीं होती, सृक्ति नहीं होती, वह देश-काल की सीमाओं को पार कर समस्त सृष्टि में अन्तर्निगूढ भाव से व्याप कर, उसमें चेतना के विकास की एक नयी भूमिका उन्नीत कर देती हैं। ऐसे कवियों की कविता का विवंचन और मूल्यांकन नहीं हुआ करता : उसको केवल अवबांधन और अनुभावन से आस्वादित किया जा सकता है। इस रस को उलीचा नहीं जा सकता, इसमें केवल झूबा और खोया जा सकता है।....
'महापण्डित, केवल एक वाक्य में स्पष्ट करें, आप मुझसे क्या चाहते हैं, इस सन्दर्भ में : आपकी पण्डित-मण्डली और उसके द्वारा भ्रमित प्रज्ञा अपने राजा से क्या माँग करती है ?" ।
"स्पष्ट कधन ही आप चाहते हैं न, सम्राट ? तो सुनें : समस्त दक्षिणावर्त और आर्यावर्त में आग की तरह यह अपवाद फैला है, कि आदि तीर्थकर वृषभनाथ की जगदीश्वरी माता मरुदेवी का ऐसा निर्बन्ध शृंगारिक नख-शिख वर्णन करके दिगम्बर जैन यति जिनसेन का ब्रह्मचर्य स्खलित हुआ है। समस्त लोकजनों की ओर से मैं यह माँग लेकर सम्राट के समक्ष उपस्थित हुआ हूँ, कि कर्नाटक के भरे राजदरबार में, खुले आम स्वयं जिनसेन खड़े होकर अपने महापुराण के उस शृंगारिक अंश का पाठ करें। लोक-जन उनके दिगम्बरत्व को कसौटी पर परखने को उद्यत है, महाराज ! प्रज्ञा उन्हीं के श्रीमुख से उनकी शृंगारिक कविता का पाठ सुनकर, उनके ऋवि और कविता की निर्विकारता और निष्कामता को खुली आँखों देखना चाहती है।..."
"तथास्तु महापण्डित !...लोक की इस शंका के समाधान का भरसक प्रयल किया जाएगा। वैसे चलते जोगी और वहते पानी हमारी आज्ञाओं के अनुचर नहीं हो सकते । पर मैं जानता हूँ, त्रैलोक्येश्वर तीर्थकर के कवि जिनसेन लोक-हृदय की अवहेलना नहीं करेंगे। किन्तु आपको स्वयं मेरे
148 : एक और नीतांजना