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में अन्तर्निहित पहाशक्ति है। दमित और विकृत होकर, वही यौनाचार वनता है। अन्यथा तो वह सृष्टि की मुक्त सृजन-कारिणी आादिनी शक्ति है। वह है कि वस्तु में परिणमन हैं। निरन्तर संचरण है। उसी में से सृष्टि है, अनादि और अनन्त । काम हैं, कि परिणाम है। काम ही तो आत्मा है । वह आद्या चिति-शक्ति । और चैतन्य मालिक वस्तु का हो सकता है । अकाम कौन हो सकता है ? क्या सत्ता अपना स्वभाव छोड़ सकती है ? अकाम नहीं, पूर्णकाम ही हुआ जा सकता है। काम जब तक अपूर्ण है, अतृप्त है, तब तक विकार से छुट्टी नहीं। जीवन जब तक स्वभाव में नहीं, विभाव में है, तब तक विकार अनिवार्य है। स्वभाव के पूर्ण साक्षात्कार में पहुंचने से पहले, विभाव का, विकार का पूर्ण साक्षात्कार करना होगा। मेरी कविता को पढ़कर प्रजा के हृदय में दवा विकार खुलकर सामने आ गया है, तो मेरा कवि कृतकाम हो गया ।...मेरा शब्द सिद्ध हुआ कि, लोक नग्न होकर अपनी आत्मा के आमने-सामने खड़ा हो गया है।..." ___"तो आर्य जिनसेन, क्या प्रजा को आत्मा को इस विकार और कामुकता में डूब जाने को छोड़ देना होगा..." __"आत्मा विकार में इब ही नहीं सकती, वह उसका स्वभाव नहीं। और विकार से वह त्रस्त हई है, तो ठीक ही है, इस सन्त्रास से निष्कान्त होकर ही वह चैन लेगी। मांगलिक मुक्ति का जायोजन हुआ है मेरी कविता से !..."
"विश्व-पुरुष ऋषभदेव की विश्वम्भरा माता को आपने लोक के समक्ष नग्न किया है। आपने मों को मातृत्व के पवित्र आसन से गिराया
"आद्या शक्ति माँ तो अपने स्वरूप में ही दिगम्बरी हैं, आयुष्मान् । उन्हें अपनी ओर से नग्न करने का अहंकार मैं कैसे कर सकता हूँ ! नग्नता तो स्वभाव है : सो उससे अधिक पवित्र तो कुछ हो नहीं सकता। पाँ अपने अणु-अणु में निरावण होकर यदि लोक के हृदय में साक्षात् हो उठी हैं, तो जिसे आप विकार कह रहे हैं न, वह उन माँ के स्वरूप में नहीं,
त्रिभुवन-मोहिनी मौं : 151