Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 142
________________ मालिका-जैसे सूक्ष्म-दर्शन-ग्रन्थ के प्रणेता परम सारस्वत सम्राट् अमोघवर्ष के इस तर्क को मैं समझ सकता हूँ। किन्तु क्षमा करें, राजन्, सब-सामान्य प्रजा काव्य को तर्क से नहीं, सीधे हृदय के भाव से ग्रहण करती है। और आर्य जिनसेन के शृंगारिक वर्णन से यदि प्रजा का मनोभाय विकृत हुआ हैं, तो ऐसा काव्य लोक-कल्याण की दृष्टि से अनर्थक ही कहा जा सकता ___मैंने तर्क नहीं किया, महापण्डित, केवल काव्य के उस निर्मल उद्गम की ओर इंगित किया है, जहाँ से महाकवि जिनसेन की कविता उद्भूत हुई है। और कविता यदि सचमुच कयिता है, तो वह भाय-ग्राह्य ही हो सकती है, तर्क-ग्राह्य नहीं। और वह मैं निश्चित जानता हूँ कि भावक प्रजाजन मरुदेवी के नख-शिख वर्णन को पढ़कर, एक सहज स्वाभाविक रसानन्द से भावित और आप्लावित हुए हैं। सामान्य भावक काव्य के रस से केवल भावित होता है, उसका विश्लेषण और मूल्यांकन करने की खटपट में वह नहीं पड़ता। मुझे तो ऐसा लग रहा है, पाण्डतराज, कि कवि और भावक के बीच यह जो आपकी आलोचक पण्डित-मण्डली है न, उसी ने तर्क-वितर्क करके महाकवि के शुद्ध शृंगार रस को बिकारी और कामुक आदि विशेषण देकर विकृत किया है, और इस तरह सहृदय, सरल भावकों को भ्रमित किया है।" ____ “सम्राट् को शायद यह अनजान नहीं, कि काव्य-शास्त्र को थोड़ा-बहुत मैं भी समझता हूँ। सर्जक और भावक के सम्बन्ध से मैं अनभिज्ञ नहीं। और कर्नाटक को प्रजा इतनी मूर्ख और भावहीन भी नहीं, कि पण्डितों के तर्क से बहक जाए। जन-समाज में जो विक्षोभ फैला है, जो ग्लानि व्यापी हैं, उसे मैंने प्रत्यक्ष जाना-बूझा है, और तटस्थ भाव से उसका निवेदन कर्नाटक के प्रजा-पालक सम्राट् तक पहुँचाने आया हूँ। पाण्डित्व-प्रभाकर जयतुंगदेव की प्रतिभा और पाण्डित्य का मैं कायल हूँ। और यदि किसी कारण प्रजा में ऐसा अज्ञान और भ्रम फैला है, तो पण्डितराज का कर्तव्य है कि उसका निवारण करें। जिनसेन की कविता 1415 : एक और नीलांजना

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