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त्रिभुवन-मोहिनी माँ आख्यान कवि-योगीश्वर आर्य जिनसेन का
शक संवत् ७५० के एक सवेरै की बात है। कर्नाटक के पाट-नगर मान्यखेट के राज-दरबार में सम्राट् अमोघवर्ष अपने सुवर्ण-सिंहासन पर अकारण ही कुछ उदग्र दिखाई पड़े। कि तभी एक प्रतिहारी ने आकर प्रणिपातपूर्वक उच्च घोष के साथ निवेदन किया : ___"जगत्तुंगदेव-पुत्र, नृपत्तुंग, शर्व, शण्ड, अतिशव-धवल, वीरनारायण, पृथिवी-वल्लभ, लक्ष्मी-यल्लम, महाराजाधिराज, परम भटार, परम भट्टारक अमोघवर्ष-देव जयवन्त हों !" __'प्रसन्न रहो प्रतिहारी। क्या शुभ संवाद है, आज के प्रमात की इस मंगल बेला में ?"
"पाण्डित्य-प्रभाकर, सर्वशास्त्र-सागर महापण्डित जयतुंगदेव महाराज के दर्शनों के प्रत्याशी हैं।
"महापण्डित का सहर्ष स्वागत है।"
कुछ ही क्षणों में वेद-वेदान्त-मार्तण्ड महापण्डित जयतुंगदेव दीर्घ शिखा, त्रिपुण्ड्र तिलक और सुगन्धित कौशेय से बातावरण को उद्दीप्त करते हुए सम्राट्र के समक्ष आ नतमाथ हुए। ।
"बहुत समय वाद महापण्डित ने कैसे आज अचानक कृपा की ?"
"अनुगृहीत हुआ महाराज के सुहद् भाव से 1...कर्नाटक की प्रजा धर्मसंकर में है, सम्राट् ।” ___आदिकाल की धर्मभूमि कर्नाटक में धर्म-संकट कैसा ? कर्नाटक की
144 : एक और नीलांजना