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माटी, पत्थर, जल, कण-कण, तृण-तृण धर्म की स्वाभाविक आभा से दीपित है। योगीश्वरों, सारस्वतों और संयती सम्राटों की ज्योतिर्मान पर उद्भासित है हमारा कर्नाटक धर्म की ग्लानि से कर्नाटक अपरिचित है, पण्डितराज। फिर यह धर्म संकट कैसा ?"
"अपराध क्षमा हो, महाराज आपके गुरुपाद महाकवि जिनसेन ने अपने महाकाव्य महापुराण में तीर्थंकर ऋषभदेव की माता मरुदेवी का जो अनगंल शृंगारिक नख-शिख वर्णन किया हैं, उसमें उन्होंने धर्म की मर्यादा का तोप किया है। कर्नाटक के धीमानू, विद्वान्, कवि और प्रजाजन, सभी उस वर्णन को कामुक और विकारी मानते हैं ।"
“आर्य जिनसेन पूर्णकाम पुरुष हैं, पण्डितराज काम और विकार जगत् और जीवन में हैं, तो जिनसेन निश्चय ही उसके अनासंग इप्टा हैं। वे उसके साक्षात्कारी सर्जक कवि हैं। पर वे सामान्य कवि नहीं, योगी कवि हैं। काम और विकार का वे रस-दर्शन की जिनेश्वरी भूमिका से अक्योधन करते हैं। विषय और विषयों के स्थायी और संचारी भाव उनके लिए हस्तामलकवत एव दर्शन का हैं। वह स्वभावतः ज्ञानाकर, उनके लिए विशुद्ध आनन्द हो जाता है। प्रथम और अन्तिम रूप से वे द्रष्टा हैं। इसी से जीवन-जगत् के प्रत्येक भाव और सौन्दर्य के वे पूर्णकाम भोक्ता हैं। उनके लिए भोग ही योग हो गया है, योग ही भोग हो गया है । सम्यग्दृष्टि ही सौन्दर्य का परम भोक्ता हो सकता है। महाकवि जिनसेन ने भगवान् ऋषभदेव की जगदम्बा माता का सौन्दर्य वर्णन सम्यक् दर्शन को उसी परम पारमेश्वरी, रमेश्वरी चेतना भूमि से किया है। उसमें काम और विकार पराकाष्टा पर उद्दीप्त होकर भी, अनायास ही सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान में उत्तीर्ण हो जाते हैं। वे शुद्ध रसानन्द बन जाते
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हैं और रसानन्द केवल अनुभूतिगम्य और आत्मगम्य है। उसे कोई नाम और मूल्य देकर उसकी धारा को हम विकृत और भंग ही कर सकते
हैं ।"
"कवि - राजमार्ग-जैसे गहन काव्य शास्त्र के रचयिता और प्रश्नोत्तर
त्रिभुवन मोहिनी माँ 145