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प्रिया की गोद हो, या फिर उसकी बाहुएँ !...जड़ उपधान पर क्या सिर दालना !" ___ चन्दना को बरबस ही हंसी आ गयीं। कुछ आश्वस्त होती-सी वे बोली :
"तो वह प्रिया क्या रात को आसमान से उत्तर आती है ?''
"यह मेरी बाहु देखो, मौसी। किस कामिनी की बाँह इससे अधिक कोमल और कमनीय होगी ? अपनी प्रिया को अपनी इस बाँह से अलग तो मैं कमी रखता नहीं। जब चाहँ, वह मेरे सोने को गोद, या चाँह ढाल देती है। मुझसे अन्य कोई भी प्रिया, पहले अपने मन की होगी, फिर मेरी। उसका मन न हो, तो अपना मन मारना पड़े। उसके भरोसे रहूँ, तो ठीक से सोना या चैंन नसीब ही न हो...!"
सामने स्फटिक के मद्रासन पर बैठी चन्दना के चेहरे पर एक गहरी जल-भरी बदली-सी छा गयी। मेरे सामने देखना उसे दूभर हो गया। ...उसकी झुकी आँखों ने सहसा ही तैरकर, अपनी पद्मिनी बाहुओं को एक निगाह देखा। अपने ही जानुओं में सिमटी गोद को निहारा।
"तो फिर मेरी क्या जरूरत तुझे...?"
...उस आवाज में जल-कम्पन-सा था। वहाँ मुद्रित, मुकुलित उस कमलिनी का समग्र बोध पाया मैंने।
"ओह चन्दन...तुम कितनी सुन्दर हो !...मुझे पता न था...।" ।
एक अथाह शून्य हमारे बीच व्याप गया। चन्दना की पलकें मुंद गयीं। जानु पर ढलकी हथेली पर, अँगूठे और मध्यमा उपली के पोर जुड़कर, एक अंजुलि की मुद्रा-सी वहाँ बन आयी।..फिर कुछ आपे में आकर यह घोली :
__"मान, तू ब्याह क्यों नहीं करता ? अब तो बड़ा हो गया है तू ! जीजी का मन कितना कातर है, तेरी इस हट से ...."
"ओ...ब्याह ? हौं-ही-हौं। लेकिन सुनो मौसी, तुम इतनी सुन्दर हो, फिर मैं य्याह कैसे करु ?..."
जब पुकारोगी, आऊँगा : 141