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आगे चन्दना से बोला न गया। इयडबायो आँखों से मुझे यों देखती रह गयौं, जैसे मैं अगम्य हूँ। पर उनकी ये आँखें भी कहाँ गम्य थी !..,
"तुझे अपने से हो सरोकार नहीं रहा, तव औरों की क्या बात !" "तुम हो न !...फिर मुझे अपनी क्या चिन्ता ?''
"मेरी और किसी को भी चिन्ता का तेरे मन क्या मूल्य है, मान ?"
"मूल्य यह क्या कम है, कि तुम हो...मेरे लिए !"
"सो तो देख रही हूँ।...यह हाल जो तुमने बना रखा है अपना !..."
"जैसे...?"
"इस कक्ष में कोई शय्या तो दीखती नहीं। पता नहीं कहाँ सोते हो ? ...सोते भी हो कि नहीं ?"
"शय्या तो, मौसी, जहाँ सोना चाहता हूँ, हो जाती है। कोई एक खास शय्या हो जाए, तो सोना भी पराधीन हो जाए। सोना तो मुक्ति के लिए होता है न !...पराधीन शय्या मेरी कैसे हो सकती है...?"
"पूछती हूँ, कहाँ सोता है...?"
"देख तो रही हो, यह मर्मर का उज्ज्वल सिंहासन, जिस पर बैठा हूँ। महावीर का सोना अपने सिंहासन पर ही हो सकता है ! तो क्या तुम खुश नहीं इससे ?"
"इस ठण्डे शिला-तल्प पर ?...न गद्दा, न उपधान ! इस सीतलपाटी पर ?...ठीक है न ?"
"गद्दे पर सोऊँ, तो अपने ही मार्दव से वंचित हो जाऊँ। गद्दे की नरमी और गरमी मुझे बहुत ठण्डी लगती है, मौसी । अपनी ही नरमी और गरमी मेरे लिए काफी है।...स्वाधीन !"
"ठीक है, तब उपधान का तो प्रश्न ही कहाँ उठता है...?" “रुई, रेशम और परों के उपधान मुझे सहारा नहीं दे पाते, मौसी।
140 : एक और नीलांजना