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तक कोई जान नहीं पाया..!" ___ "बहुत अच्छा ! ...तुम्हारे सिवा यह कौन ज्ञान सकता है, अम्माँ ?...हाँ, तो आज्ञा दो माँ ।'
"तो लिवा लाऊँ चन्दना को ?" "अरे तुम क्यों कष्ट करोगी माँ। बस...वही आ जाएँ ।"
और माँ एक निगाह, पुझे ताककर चली गयीं। .....हाँ, माँ से सुनता रहा हूँ, सबसे छोटी चन्दन मौसी हैं, वैशाली में। कि स्वभाव में वे ठीक मेरी सगी बहन हैं। न किसी से खास मेल-जोल, न बोल-चाल । बस, अपने में अकेली, और बेपता रहती हैं। और यह भी कि मुझे बहुत याद करती हैं। नहीं तो किसी को याद करना उनकी आदत में नहीं। अहोभाग्य मेरा...!
...अचानक ही क्या देखता हूँ कि हिमयान् की कोई अगोचर चूड़ा जैसे 'नन्द्यावत' की छत पर निसरी-सी चली आ रही है। नीली-उजली-सी एक इकहरी लड़की । हलके पद्मराग अंशुक के कौशेय में, वैदिक ऋषि की ऊषा को जैसे यहाँ सहसा प्रकट देखा। एकत्रित घना केशपाश जरा बोकम ग्रीवा के एक ओर से पूरा वक्षदेश को अतिक्रान्त करता चरण चूमने को आकुल है। ....पूरा आसपास मानो बदली-बदली निगाहों से देख उठा 1... 'आओ चन्दन माँसी, वर्द्धमान प्रणाम करता है !" "अरे वर्द्धन, कितना बड़ा हो गया है। पहली बार तुझे देख रही हूँ।" "और मैं भी तो तम्हें पहली बार देख रहा हूँ, मौसी !"
"सो तो है ही। तुझे तो हमारी पड़ी नहीं। वैशाली जैसे तीन लोक से पार हो कहीं...!"
"तुम वहाँ रहती हो, तो है ही..."
"मेरी बात छोड़, पर अपनों में, परिवारों में कभी कहीं दीखा है तू ? कितना तरसते हैं सब तुझे देखने को ! मगध, उज्जयिनी, कौशाम्बी, चम्पा, सौवीर में जाने कितने उत्सव-विवाह प्रसंग आये होंगे। पर तेरे दर्शन दुर्लभ ।
136 : एक और. नीलांजना