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वे पा गयी हैं। इससे बहुत राहत महसूस होती है।
...आज सवेरे सहसा ही माँ द्वार में खड़ी दिखाई पड़ीं। उनका यह अतिथि रूप अपूर्व सुन्दर और प्रियंकर लगा। मैं उन्हें देखता ही रह गया। ऐसा भूला उस रूप में कि अलग से विनय करने तक का भान न रहा। एकाग्र उन्हें निहार रहा था, कि सनाई पडा :
सुनता है मान, वैशाली से चन्दना आयी है। ...तेरी छोटी मौसी चन्दन...!"
"बहुत अच्छा ...!" "तुझसे मिलना चाहती है।" "कौन माँ...?" "कहा न, चन्दना...!" "ये कौन हैं, माँ..."
"कहा न तेरी चन्दन मौसी ! कितनी ही बार तो तुझे उसके विषय में बताया है।"
"अच्छा-अच्छा...हाँ हाँ हाँ ! तो ये कहाँ से आयी हैं ?" "तू तो कभी कोई यात पूरी सुनता नहीं। कहा न, वैशाली से आयी
"बहुत अच्छा ...." "हर बात का एक ही उत्तर है तेरे पास-बहुत अच्छा !"
"सो तो सब अच्छा है ही, माँ। है कि नहीं ? असल में आज तुम कितनी अच्छी लग रही हो, यही देख रहा था...!"
क्षण-भर एक सभर मौन हमारी परस्पर अवलोकती आँखों के बीच छाया रहा। उसमें से उबरती-सी वे बोली :
"तो लिवा लाऊँ चन्दना को, यहाँ मेरे पास ?"
"अ...हौं ! वे आयें। अनुपात से क्यों, अधिकार से आयें । मुझे पराया समझती हैं ?-दूर मानती हैं क्या ?"
"पर तू किसका अपना है, और किससे दूर नहीं है, यह तो आज
जब पुकारोगी, आऊंगा : 137