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महाराज शिवकोटि अश्रु-सजल नयनों से कुमार-योगी समन्तभद्र के
चरणों में शरणागत हुए और बोले :
"योगिन् साक्षात् महेश्वर हो । बुद्ध कि जो भगवान् ऋषभदेव आदिनाथ हैं, वही देवाधिदेव आदिनाथ शंकर हैं। दोनों ही वृषभारोही हैं। दोनों ही धर्मरूपी वृषभ के महाचारण हैं।... जो भगवान् चन्द्रप्रभ हैं, वही भगवान् चन्द्रमौलीश्वर हैं। जिनेश्वरों की अनेकान्तिनी ज्ञान - ज्योति से भास्वर ही तुम, हे दिगम्बर ! मैं आप्यायित हुआ । मैं जिनवोधित हुआ...!"
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... और कहा जाता है कि इस घटना के बाद काशीराज शिवकोटि ने महायोगी समन्तभद्र के चरणों में जिनेश्वरी प्रव्रज्या अंगीकार की और श्रीगुरु कृपा से आलोकित होकर उन्होंने 'भगवती आराधना' जैसे अनगार धर्म के उपदेष्टा महान् ग्रन्थ की रचना की ।
... और तब सिद्धसेन दिवाकर के समकक्ष ही आर्यावर्त के ज्ञान-गगन में अनेकान्त और सर्व- समन्वयी विश्वधर्म का उद्गाता एक और महासूर्य प्रrोतमान हुआ : नैयायिक-चक्र-चूड़ामणि भगवान् समन्तभद्र ! इस दिगम्बर नरसिंह ने अपने सोऽहंकारी स्तुति गानों से समकालीन विश्व के ज्ञान दियन्तों को एक अपूर्व बौद्धिक अतिक्रान्ति से जाज्वल्यमान कर दिया ।
... उसके भीतर आत्म-तत्त्व ने, विश्व-तत्त्व होकर पृथ्वी पर दिगम्बर विचरण किया।
और विक्रम की तीसरी शताब्दी के भारतीय खमण्डल में सर्वतोमुखी ब्रह्मतेज का एक अनहद नाद - सा गूँजता सुनाई पड़ रहा था :
"आचार्योऽहं कबिरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहम् दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायाम्, आज्ञासिद्धः किमति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् "
(23 अगस्त, 1979)
अनेकान्त चक्रवर्ती भगवान् समन्तभद्र 1.35