Book Title: Ek aur Nilanjana
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 129
________________ "राजन्, निश्चय ही समन्तभद्र विश्वनाथ का बन्दन करेगा ! पर उसकी वन्दना भी साधारण नहीं अपूर्व होगी। विस्फोटक होगी ! उसके समक्ष एकान्त पिण्ड का विस्फोटन कर अनेकान्त ब्रह्मज्योति फूट निकलेगी। मेरे आवाहन पर पिण्डीकृत महादेय में से ब्रह्माण्डपति देवाधिदेव चन्द्रमौलीश्वर स्वयं प्रकट होंगे।...सावधान राजन, जो व्यवस्था चाहें, कर लें। विस्फोटक होगा मेरा चन्दन...!" "तथास्तु आर्य समन्तभद्र ! हम तुम्हारी बन्दना का चमत्कार देखना चाहते हैं।" वाराणसी के हागें नर-नारी का ठद विश्वनाम पन्टिर में जण है। महाराज शिवकोटि, उनके पण्डित और याजक-पुजारियों का मण्डल, परीक्षक और साक्षी होकर महालिंग को घेरे हुए है। सम्मुख, निर्ग्रन्थ दिगम्बर रूप में कुमार-योगी समन्तभद्र एक अद्भुत शान्ति की प्रभा विकीर्ण करते हुए कायोत्सर्ग मुद्रा में खड्गासन खड़े हुए हैं। उनके दोनों ओर दो सैनिक नंगी तलवारें ताने खड़े हैं, कि यदि वे बन्दन न कर पायें, तो यहीं उनका शिरच्छेद कर दिया जाए। ....समन्तभद्र ने गम्भीर स्वर में उच्चरित किया : "शिवोऽहं...शिवोऽहं ...शिवोऽहं..." और मेघ-मन्द्र कण्ठ-ध्वनि से वे देवाधिदेव आदिनाथ वृषभेश्वर के स्वयम्भू ज्योतिर्लिंग को लक्ष्य कर स्तोत्रगान करने लगे "स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले समञ्जसज्ञानविभूतिचक्षुषा, विराजितं येन विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः करैः । विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधावधू सतीम्, मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवब्राज सहिष्णुरच्युतः । स विश्वचक्षुर्वृषभोऽर्चितः सतां समग्रविद्यात्मवपुर्निरञ्जनः, पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो जिनो जितक्षुल्लकवादिशासनः ॥" ...सुनकर पण्डित-मण्डली भीतर-भीतर खलबलाने लगी : "अरे, यह अनेकान्त चक्रवर्ती : भगवान् समन्तभद्र : 133

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